‘लाल सिंह चड्डा’ स्पीनी कार की तरह है, जिसे आप न तो नई कार कह सकते हैं और न ही पुरानी कार। यानी इस फिल्म को न तो ‘फॉरेस्ट गम्प’ की नकल कहा जा सकता है और न ही इसका प्लॉट ‘फॉरेस्ट गम्प’ से ज्यादा अलग है। यह बिलकुल वैसा ही है कि बाप-दादा ने बड़ी मेहनत से घर की नींव डाली, उस पर भव्य इमारत खड़ा किया और बाद में बेटा उसकी सिर्फ पुताई कराने के बाद पिता से कहता है कि ‘यह घर मेरा है।’ बहुत-से लोग इसे ‘फॉरेस्ट गम्प’ की नकल मानने से इनकार कर रहे हैं। लेकिन ‘लाल सिंह चड्डा’ ने ‘फॉरेस्ट गम्प’ की पुताई ही की है। इसे स्वीकार कर लेने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हाँ, इस फिल्म के मेकर्स ने इसमें अपना नया रंग जरूर भरा है जो ‘फॉरेस्ट गम्प’ से इसे अलग करता है।
‘लाल सिंह चड्डा’ में किया गया बदलाव भारतीय दर्शकों की रुचि का परिणाम है। इसमें फिल्म वालों का उतना दोष नहीं है जितना कि हमारा है। करोड़ों रुपये लगाने वाले इस बात का जरूर ध्यान रखते हैं कि दर्शकों से उसकी भरपाई कैसे कराई जाए। अभी हाल ही में हॉलीवुड फिल्म ‘Little Women’ देखी है। उस फिल्म की हीरोइन चाहती है कि उसके द्वारा लिखी गई किताब का अंत उसी के अनुसार हो। लेकिन प्रकाशक कहता है कि यदि उसके अंत में बदलाव नहीं किया गया तो वह उसे प्रकाशित नहीं करेगा। क्योंकि इससे उसको भारी नुकसान हो सकता है। मजबूरन लेखिका को रचना के अंत में बदलाव करते हुए लड़का-लड़की को मिलाना पड़ता है। उस दृश्य को देखकर ‘तीसरी कसम’ की याद आई। यदि ‘तीसरी कसम’ फिल्म में हीरो-हीरोइन को अंत में मिलवा दिया गया होता तो उसके साथ ट्रेजेडी नहीं होती। ‘लाल सिंह चड्डा’ में इसी बात का ध्यान रखा गया है। यह हमारी कमजोरी और सिनेमा वालों की मजबूरी है। हमारा विचार अभी भी संकुचित ही है। इसीलिए इस फिल्म की कहानी में बहुत कुछ बदल दिया गया है।
‘फॉरेस्ट गम्प’ में गम्प की माँ बेटे के एडमिशन के लिए प्रिंसिपल के साथ शारीरिक संबंध बनाती है। अमेरिका में भारत की तरह जातिवाद नहीं है। वहाँ इसके बरक्स नस्लवाद है। यानी मुख्य रूप से दो ही जातियाँ हैं- श्वेत और अश्वेत। इसलिए वहाँ ऐसा दिखाना आसान हुआ। वैसे भी वहाँ की संस्कृति यहाँ की संस्कृति से बहुत भिन्न है। वहाँ के लिए यह बहुत साधारण-सी बात हो सकती है। लेकिन हिंदुस्तान में यह दिखाना ‘मलेरिया’ (दंगा) फैलाने जैसा होता। ‘चड्डा’ पंजाबी है। आप कल्पना कीजिए कि यदि इस फिल्म में चड्डा की माँ को प्रिंसिपल के साथ संबंध बनाते हुए दिखाया जाता तो क्या सिख समुदाय इसे बर्दाश्त कर लेता? ‘मलेरिया’ (हिंसा) फैलने की नौबत आ जाती। एक तो वैसे ही भारतीय सिनेमा के प्रति देश में नफरत का माहौल है। खान अभिनेताओं के प्रति तो देश में बहुत पहले से नफरत का माहौल बनाया गया है। सिर्फ आमिर खान की वजह से इस फिल्म का इतना विरोध किया जा रहा है तो आप सोचिए कि उस दृश्य के कारण इसका कितना और कहाँ-कहाँ विरोध किया जाता? ठीक वैसे ही यदि किसी दूसरी जाति के साथ ऐसा किया जाता तो उसका परिणाम भी यही होता। इससे हिंदुस्तान की जातिगत अस्मिता को ठेंस पहुँचती। किसी भी जाति का समाज इसे बर्दाश्त नहीं करता। और भारतीय सिनेमा का जातीय चरित्र तो ऐसा है कि वह इस दृश्य को हू-ब-हू दिखाने के लिए भी हीरो को छोटी जाति का नहीं बना सकता। इसलिए फिल्म ने अलग रंग का इस्तेमाल किया। यही एक ऐसा दृश्य है जिसे मजबूरी में बदला गया है। शेष सारे दृश्य बहुत सूझ-बूझ के साथ बदले गए हैं।
‘लाल सिंह चड्डा’ इमरजेंसी से लेकर 2018 तक त्रासद जीवन की यात्रा है। आप चाहें तो इसे राजनीतिक यात्रा भी कह सकते हैं। लेकिन इस राजनीतिक यात्रा पर ऐसा रंग चढ़ाया गया है जैसे किसी राजनीतिक पार्टी विशेष की आलोचना हो रही हो। जैसे इमरजेंसी, इंदिरा हत्या के बाद सन् 84 का दंगा आदि। इस फिल्म ने दो महत्त्वपूर्ण राजनीतिक घटनाओं को आसानी से दबा दिया है। बगैर सूझबूझ के भला उसका जिक्र करना कोई कैसे छोड़ सकता है? पहली घटना है राजीव गाँधी की हत्या और दूसरी घटना है गुजरात दंगा। राजीव गाँधी हत्या कांड दिखाने से कांग्रेस के प्रति लोगों में सहानुभूति पैदा होती। देश की जनता के बीच उनके राजनीतिक बलिदान का अच्छा संदेश जाता। क्योंकि इंदिरा द्वारा थोपी गई इमरजेंसी ने उसकी हत्या की संवेदनात्मक पीड़ा को कम कर दिया था। बहुत बड़ी आबादी उनकी मौत पर खुश थीं। लेकिन राजीव गाँधी की हत्या ने देश को झकझोर कर रख दिया था। घर-घर की स्त्रियाँ रोने लगी थीं। ‘चड्डा’ के मेकर्स ने उस संवेदना को उद्वेलित करना ठीक नहीं समझा। दूसरी तरफ गुजरात कांड से भी परहेज किया। क्योंकि इससे वर्तमान सरकार की आलोचना होती। जबकि 84 के दंगे और 2002 के दंगे में ज्यादा फर्क नहीं है। अन्ना आंदोलन भी लोकपाल बिल के लिए कम, कांग्रेस सरकार को नीचा दिखाने के लिए अधिक था। उस आंदोलन का उद्देश्य यही बताना था कि कांग्रेस कितनी भ्रष्ट पार्टी है। यह फिल्म सीधे-सीधे कांग्रेस पार्टी लाइन के खिलाफ है। उसके उज्ज्वल पक्ष को दबा दिया गया है, दुर्बल पक्ष को प्रमुखता से उभारा गया है। मजे की बात देखिए कि ‘चड्डा’ को नोटबंदी की कतार में भी खड़ा नहीं होना पड़ा। इसका मकसद सिर्फ यह दिखाना रहा कि इमरजेंसी से लेकर अब तक देश ने कितने दंश सहे। फिल्म के लेखक अतुल कुलकर्णी ने वही काम किया है जो काम ‘द कश्मीर फ़ाइल’ के लेखक विवेक अग्निहोत्री ने किया था।
‘लाल सिंह चड्डा’ में दिखाए युद्ध दृश्य भी जातीय चेतना सम्पन्न भारतीय दर्शक और वर्तमान सरकार की रुचि के अनुकूल है। पिछले कुछ वर्षों से हिन्दू-मुस्लिम और भारत-पाकिस्तान की खेती खूब हुई है। सांप्रदायिक उन्माद में डूबे हुए लोगों का गोदाम इससे उपजे अनाजों से भर गया है। इसलिए चड्डा ने ‘कारगिल’ युद्ध को चुना। ‘गम्प’ की तरह नस्लभेद की राजनीति से उपजे युद्ध को नहीं। वैसे भी भारत में उस युद्ध का चयन करना मुश्किल होता। क्योंकि नस्लभेद जैसी लड़ाई इस देश में लड़ी नहीं गई। नक्सलबाड़ी आंदोलन ‘चड्डा’ के जन्म से पहले की घटना है। उसका इतिहास 1950 से शुरू होता तो यह संभव हो सकता था। लेकिन इस फिल्म ने इमरजेंसी से इसकी शुरुआत की। उसके बाद तो ज्यादा से ज्यादा किसी नक्सली हमले को ही दिखाया जा सकता था। लेकिन इसके भी कई खतरे हो सकते थे। नक्सली को गलत दर्शाया जाता तो आदिवासी समुदाय इसकी आलोचना करते और यदि भारत सरकार की गलती बताई जाती तो फिल्म का रिलीज होना मुश्किल हो जाता। इसलिए इस फिल्म ने उस पक्ष को चुना जिसे हम बड़े चाव से देखते और पचाते हैं। कारगिल युद्ध बीजेपी शासन काल का एक काला अध्याय है, लेकिन इस युद्ध को ऐसे विजयी उत्सव में परिवर्तित कर दिया गया है कि लोग इसके कारणों की खोज तक नहीं करते। इस युद्ध ने तत्कालीन भारत सरकार के सभी राजनीतिक कलुषों को भस्म कर दिया है। इसे ही सांप्रदायिक राष्ट्रवाद और धार्मिक उन्माद कहा जाता है जिसकी बहुत सूक्ष्म आलोचना यह फिल्म करती है।
कारगिल युद्ध इस फिल्म का सबसे मजबूत और मनोरंजक हिस्सा है। उसे थोड़ा और बढ़ाया जा सकता था। इसमें लड़ाई के जो दृश्य दिखाए गए हैं वह ‘कारगिल’ फिल्म से भी अधिक प्रभावी है। ऐसा लगता है कि हम सब उस लड़ाई का हिस्सा हैं और कारगिल में सैनिकों के साथ जंग लड़ रहे हैं। हमें लगता है कि यह लड़ाई चलती रहे। लेकिन उसका सारा जोश तब ठंडा हो जाता है जब चड्डा एक आतंकवादी को उठाकर ले आता है। यह बासमती चावल में चूहे की लीद की तरह है जो उसके स्वाद को क्षण भर में नष्ट कर देती है। यह दृश्य इस फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष है जो कहीं से भी वास्तविक नहीं लगता है। युद्ध में शामिल भारतीय सैनिक का कोई भी जवान क्या अपने साथी को नहीं पहचानता था? उसे तो देखकर भी अंदाजा लगाया जा सकता था कि वह भारतीय सैनिक नहीं आतंकी है। चड्डा को नहीं पता था, किसी और को तो पता होना चाहिए था। उसके स्थान पर कोई भारतीय सैनिक होता तो यह दृश्य वास्तविक लगता है। ‘गम्प’ के ल्यूटीनेंट (लेफ्टिनेंट) डैन के साथ इस फिल्म में जो भद्दा मज़ाक किया गया है वह भारतीय दर्शकों को निराश करता है। उसे आतंकी के रूप में भी कैद कर उसके सुधार का प्रयास या सत्ता की युद्धोन्मत दुष्प्रवृत्तियों को उजागर किया जा सकता था। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। इसका सीधा-सीधा मतलब यही है कि भारतीय सैनिक बिलकुल नासमझ है। उसे अपने सैनिक और आतंकी की कोई पहचान नहीं है। हिन्दुत्ववादी संगठनों की ओर से बॉलीवुड के बहिष्कार का एक बड़ा कारण यह भी है। उसकी नाराजगी का मूल कारण ही यही है कि पिछले कुछ वर्षों से भारतीय सिनेमा ने पाकिस्तानी व्यक्तियों और आतंकियों की छवि को चमकाने का खूब प्रयास किया है। आमिर खान की फिल्म ‘पीके’ में भी ऐसा ही प्रयोग देखने को मिला था और इसी कारण उसका भी विरोध हुआ था। ऐसा करना बुरी बात नहीं है। लेकिन वह प्रसंगानुकूल हो तो सही लगता है। जैसे इस फिल्म का यह हिस्सा बिलकुल अपच है। इसकी कोई जरूरत नहीं थी। यह श्वेत-अश्वेत युद्ध की अनदेखी से भी बड़ा मिसफिट है। यह ऐसी गलती है जिसके लिए इसके मेकर्स को माफ नहीं किया जा सकता।
समाजवादी चिंतक दिलीप मंडल ने कहा है कि नब्बे के दशक में चलाए गए मंडल कमीशन का आंदोलन इस फिल्म से गायब है। हम सब जानते हैं कि इस आंदोलन के मूल में ओबीसी आरक्षण था। इस आंदोलन को इस फिल्म से गायब नहीं किया गया है। इसमें उसका जिक्र है, लेकिन दूसरे तरीके से। आप ने कॉलेज की दीवार पर लिखा हुआ देखा होगा- “आरक्षण जनमत का भक्षण”। यह उसी आंदोलन के खिलाफ लिखा गया नारा लगता है। और यदि यह उस आंदोलन के विरुद्ध लिखा गया नारा नहीं भी है तो इससे यह तो पता चलता ही है कि यह फिल्म प्रतीकात्मक ढंग से ही सही, आरक्षण का विरोध करती है। इसके अतिरिक्त कुछ और प्रतीकात्मक चीजों का इसमें प्रयोग किया गया है। जैसे इंडिया गेट के पास के शाहजहाँ रोड का, राजस्थान के खेतों में बने छोटे-छोटे मंदिरों में लहराते हिन्दू झंडे का, अबकी बार मोदी सरकार के पोस्टर का आदि। ये सारे प्रयोग वर्तमान सिनेमाई प्रवृत्तियों के परिणाम हैं। फिल्म वालों ने उन सभी बातों का बखूबी ध्यान रखा है जिसको आज लोग देखना-सुनना पसंद करते हैं।
‘लाल सिंह चड्डा’ की चार अच्छी बातें-
इस फिल्म की जो पहली सबसे अच्छी बात है वह है आमिर खान का अभिनय। यह अब तक का उनका सबसे अच्छा किरदार है। उन्होंने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि बॉलीवुड का ‘मिस्टर परफेक्टनिस्ट’ उन्हें क्यों कहा जाता है। अपने हर रोल में वे जान भर देते हैं। हालाँकि ‘गम्प’ की तरह इमोशन क्रिएट करने में वे थोड़ा चुके जरूर हैं, पर जितना भी वे कर पाते हैं, उसका प्रभाव दर्शकों पर पड़ता है। उन्हें देखकर कई बार भावुक होने के लिए मजबूर होना पड़ता है। दूसरी अच्छी बात ‘मज़हब मलेरिया फैलाता है’ संवाद है। धर्मांधता किसी भी जाति, धर्म और समुदाय के लिए घातक है। इसी कारण साम्प्रदायिक दंगे होते हैं। यही केंद्रीय विषय है इस फिल्म का। परंतु दुर्भाग्य की बात यह है कि इस ‘मलेरिया’ को कांग्रेस के मत्थे मढ दिया गया है। साम्प्रदायिक उन्माद के जरिए अपना राजनीतिक स्वार्थ साधने वाले को चिह्नित ही नहीं किया गया। जो कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक, सांस्कृतिक सौहार्द की पार्टी मानी जाती है, उसे एक साम्प्रदायिक और ‘मलेरिया’ फैलाने वाली पार्टी साबित कर दिया है। तीसरी अच्छी बात है प्रेम के अहसास को महसूस करना। चड्डा के हृदय में रूपा के लिए जो प्यार है वह सच्चा, पवित्र, निःस्वार्थ और एकनिष्ठ है। वह जब भी रूपा से मिलता है, उसके इस भाव को महसूस किया जा सकता है। वह रूपा के लिए किसी से भी लड़ सकता है, किसी को भी मार सकता है। वह कभी किसी बात के लिए रूपा को ‘ना’ नहीं बोलता। उसकी डिक्शनरी में यह शब्द है ही नहीं। जबकि रूपा बार-बार उससे झूठ बोलती है। उसे बुद्धू समझकर अनदेखा करती है। चौथी अच्छी बात यह है कि इसके सारे गाने बहुत अच्छे हैं। चाहे वह ‘तुर कलियाँ’ हो, ‘कहानियां’, ‘फिर न ऐसी रात आएगी’ या फिर ‘तेरे हवाले’ हो, सभी गाने आध्यात्मिक आनंद प्रदान करने वाले हैं।
करीना का किरदार बिलकुल वैसा ही है जैसा ‘गम्प’ की जैनी का किरदार है। दोनों की महत्वाकांक्षा बड़ी है। पर जब सभी जगह से शोषित-पीड़ित, हताश-निराश होती है तब वह ‘चड्डा’ और ‘गम्प’ के पास लौटती है। ये दोनों ही चरित्र ऐसे हैं जिस पर बोलना-लिखना स्त्री विरोधी की श्रेणी में होना है। ‘गम्प’ और ‘चड्डा’ दोनों बहुत भोले और विवेकहीन है जो उन्हें स्वीकार कर लेते हैं। सभी जगह से लूटी-टूटी हुई ये स्त्रियाँ सीधे-साधे और भोले-भाले ‘गम्प’ और ‘चड्डा’ के गले पड़ जाती हैं। दोनों अभिनेताओं के मन में सच्चा प्रेम है तो दोनों लड़कियों के मन में खूब सारा पैसा। दोनों अभिनेताओं के हृदय में सच्ची श्रद्धा है तो दोनों लड़कियों के हृदय में विशुद्ध रूप से स्वार्थ।
रमेश ठाकुर
असिस्टेंट प्रोफेसर,
हिंदी विभाग, हिन्दू कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-110007
मो. 8448971626/8810399646