पेरियार ललई सिंह के साहित्य और चिंतन को संगृहीत कर धर्मवीर यादव गगन ने उसका संकलन संपादित किया है, जो राजकमल प्रकाशन समूह, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ है। इसका विमोचन 16 अक्टूबर, 2022 को कानपुर, उ.प्र. में हुआ। अध्यक्षता जय प्रकाश कर्दम ने की। मुख्य अतिथि उर्मिलेश थे। वक्ता- वीरेंद्र यादव, दिलीप मंडल, हितेंद्र पटेल, रामाशंकर सिंह, नीरज भाई पटेल और धर्मवीर यादव गगन (संपादक पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली) थे। आयोजक सुरेंद्र सिंह थे।
प्रोफेसर दिलीप मंडल ने अपनी बात रखते हुए कहा- “पेरियार ललई सिंह का चिंतन ग्रंथावली रूप में प्रकाशित होना ऐतिहासिक है। सम्पादक धर्मवीर यादव गगन को विशेष धन्यवाद। इस ग्रंथावली के साथ देश वैचारिक यात्रा कर रहा है जो राष्ट्र को मनुष्यता और बंधुता के मूल्य के साथ आगे ले जाने के लिए है। ललई सिंह दक्षिण भारत के पेरियार से प्रेरित थे। इसीलिए वेद आदि की आलोचना करते थे। पेरियार ललई सिंह का मानना था कि वेद आदि ग्रंथ असमानता के प्रेरणाश्रोत हैं। इस कारण वे इसके विरोधी थे। वे सच्ची रामायण का हिंदी अनुवाद कराकर अशोक पुस्तकालय से 1968 में प्रकाशित करते हैं। साथ ही शम्बूक और एकलव्य पर नाटक लिखते हैं। इसमें वे ईश्वर, धर्म आदि पर बौद्धिक बहस करते हैं। बहस की यह विरासत बुद्ध, चार्वाक, अजित केशकम्बलि, मक्कखली गोसाल, कबीर, फुले, पेरियार, अम्बेडक आदि तक फैली हुई है। इसी कारण हमें मानसिक स्वतंत्रता अनेक माध्यमों से मिलती है।”
वीरेंद्र यादव ने कहा- “यह ऐतिहासिक समागम है जिसमें पेरियार ललई सिंह की वैचारिकी को चाहने वाले एकत्रित हुए हैं। पेरियार ललई सिंह बुद्धि, तर्क और ज्ञान की सोच का भौतिकतावादी राष्ट्र निर्माण करने की कोशिश करते हैं। जब देश स्वतंत्र होने वाला था तब पेरियार ललई सिंह अपनी बौद्धिक और साहित्यिक अभिव्यक्ति से देश को विकल्प दे रहे थे, जो हिंदुत्व मुक्त और समतामूलक था। इसी कारण 1946 में वे ‘सिपाही की तबाही’ नामक नाटक लिखते हैं , जिसमें सम्राज्यवाद के साथ वर्णवाद की भी गहरी आलोचना है। भारत विविधताओं से भरा हुआ है। ये विविधताएं एकतामूलक और विभाजनकारी दोनों प्रकार की हैं। इसी एकता की सोच को पेरियार ललई सिंह प्रबलित करते हैं। पूर्व में अम्बेडकर, गांधी से इसीलिए टकराते हैं। बौद्धिक बहस करते हैं। पेरियार ललई सिंह के प्रेरणा श्रोत बुद्ध, फुले, पेरियार और अम्बेडकर थे।”
अछूत के सवाल पर भगत सिंह और प्रेमचंद लिखते हैं। वर्णाश्रम व्यवस्था को नस्ट करना चाहते हैं । पेरियार ललई सिंह इसी प्रकार अछूत मानसिकता और वर्णाश्रमी सोच को उन्मुलित करना चाहते हैं और लघु-प्रकार की अभियानी पुस्तकें लिखते हैं, जो वर्ण, जाति और अछूतपन की सोच को एड्रेस करती हैं। इसी प्रकार राहुल संस्कृत्यायन भी छोटी-छोटी पुस्तकें लिखकर भारतीय समाज की जड़ता को तोड़ने की कोशिश करते हैं। डॉ. अम्बेडकर के जाति के सवाल को पेरियार ललई सिंह व्यवहारिक रूप देने की कोशिश करते हैं। वे लिखते हैं कि सरकार अंतर जातीय विवाह को बढ़ावा दे। जिसमें लड़की या लड़का कोई न कोई अछूत होना अनिवार्य किया जाए । रक्त मिश्रण से बंधुता पैदा होगी । इसी प्रकार सरकार जाति सूचक शिक्षण संस्थान को वित्तीय सहायता न दे । ऐसे संस्थानों को बंद कराए । ललई वास्तविक रूप से वर्ण और जाति को तोड़ने का विजन लेकर चले थे । वे ज्ञान प्राप्ति के लिए अंग्रेजी भाषा के पूर्ण समर्थक थे । वे एक व्यक्ति थे लेकिन एक संस्थान के रूप में काम किए । वे तर्क, ज्ञान और विवेक पर आधारित समाज और राष्ट्र बनाना चाहते थे जिस पर वर्चस्ववादी सत्ता संरचना पहरा लगाती है । जो आजतक जारी है । इसी कारण उस समय हिंदुत्ववादियों से उन्हें भिंडना पड़ा । उनके इस आमूलचूल परिवर्तनशील संघर्ष को सामाजिक न्याय के दलों ने सामाजिक रूपांतरण की शक्ल नहीं दे सके । अन्यथा आज भारत और उत्तर भारत में हिंदुत्ववादी सरकार नहीं होती । इन्हीं सवालों के साथ आज यह ग्रंथावली हस्तक्षेप करती है । यदि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और हिंदुत्व को परास्त करना है तो हमें पेरियार ललई सिंह आदि विचारकों की वैचारिकी से धार लेना होगा । यहाँ कथाओं में, गल्प में कर्मकांड और अंधविश्वास को परोसा जाता है । उसका प्रतिरोध फुले, अम्बेडक, पेरियार, पेरियार ललई सिंह और रामस्वरूप वर्मा, भगत सिंह, प्रेमचंद की वैचारिक पुस्तकों में है । हमें वैज्ञानिक चेतन का विकास करना होगा । ये पुस्तकें, ग्रंथावालियाँ हमारे घरों में होनी चाहिए । यही हमारा वास्तविक साहित्य है । अब वस्तविक साहित्य आ गया है । जिसमें वर्ण-जाति और अस्पृश्यता का अमूल विरोध है । इसको पढ़ने से आप मानसिक गुलामी से निकलेंगें । बाबा साहब डॉ अम्बेडक ने कहा था कि जो कौम अपना इतिहास जानती है वही कौम इतिहास बनाती है । इसी कारण हमें अपना वैचारिक इतिहास जानना जरूरी है ।
उर्मिलेश – पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली के ऐतिहासिक संपादन के लिए धर्मवीर यादव गगन को बधाई । अथक श्रम के बाद यह ग्रंथ प्रकाशित हुआ । यह हिंदी हार्टलैंड में ऐतिहासिक कार्य है । जो मौलिक बौद्धिक-सांस्कृतिक विरासत को साफ दर्शाता है । आज जिस कानपुर में पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली का विमोचन हो रहा है । यह कानपुर भगत सिंह, गणेश शंकर विधार्थी का है । क्रांति के समय भगत सिंह यहीं ‘प्रताप’ अखबार के कार्यालय में छुपते थे । यह क्रांति भूमि थी । यहाँ से पेरियार ललई सिंह और रामस्वरूप वर्मा जैसे विचारक निकले लेकिन हिंदी हार्टलैंड की सामाजिक न्याय की सरकारों ने उनके वैचारिकी को हथियार नहीं बनाया । नब्बे से दो हजार सत्रह तक सामाजिक न्याय की सरकार रही किन्तु पेरियार ललई सिंह कभी याद नहीं आए । ऐसा क्यों है? ऐसा न होने के ही कारण आज हिंदुत्व जनता और राजनेताओं का गला दबा रहा है । उन्हें निगल रहा है । यह गंभीरता से सोचने की बात है कि सामाजिक न्याय की सरकारों ने चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, पेरियार ललई सिंह, रामस्वरूप वर्मा और जगदेव प्रसाद आदि का साहित्य क्यों नहीं प्रकाशित किया? जबकि दक्षिण की पेरियारवादी सरकार ने पेरियार ई वी रामास्वामी के साहित्य को भारत और दुनिया की सभी भाषाओं में अनुवाद के लिए पाँच करोड़ का बजट विधान सभा से पास किया है । वहीं उत्तर भारत की सामाजिक न्याय की सरकारों में यह सोच क्यों नहीं बन सकी? चूँकि वे विचार की नहीं सत्ता और धनतंत्र का शासन कर रहे थे तो कैसे पेरियार, पेरियार ललई सिंह याद आयेंगे। आप सोचिये बाबा साहब डॉ अम्बेडक के साहित्य को कांग्रेसी सरकार ने छाप दिया लेकिन ये लोग क्यों साहित्य और चिंतन के मसले पर चुप रहे । पेरियार ललई सिंह उत्तर भारत के पेरियार कहे जाते हैं । इतने बड़े बुद्धिजीवी, विचारक को ये सरकारें भुला दीं । पेरियार ललई सिंह के हिंदी हार्टलैंड में सामाजिक, राजनीतिक और वर्णवाद के प्रखर प्रतिरोध के नवजागरण को भुला दिया गया । सच तो यह है कि जो महान कार्य सामाजिक न्याय की सरकारें नहीं कर सकीं वो कार्य युवा अनुसंधानकर्ता धर्मवीर यादव गगन ने कर दिया । जबकि अन्य कार्यों के लिए इन सरकारों ने बेसुमार पैसा खर्च किया । वास्तव में, यह सोच, विजन और अपनी बौद्धिक विरासत की समझ का न होने का परिणाम है । जो बौद्धिक है उनसे उन्हें घृणा है जो लुटेरे हैं उनसे उनको प्रेम है । जिसके पास समझ है उसे वो पूरी तरह ना पसंद करते हैं । वे दूसरे वर्ग को पसंद करते हैं । इतनी बार राजनीतिक धूल उठाने के बाद अब तो उन्हें पेरियार ललई सिंह का साहित्य और चिंतन पढ़ना, समझना चाहिए ।
यह देश महादेशों का गठबंधन है । और यह भी सच है कि इस महादेश में महा-गठबंधन की सरकार बेहतर होती है । यहाँ गठबंधन की सरकारों ने कई ऐतिहासिक सामाजिक न्याय के निर्णय लिया है । ऐसी सरकारों की वैचारिकी का आधार पेरियार ललई सिंह का साहित्य हो सकता है । ऐसी गठबंधन की सरकारों को 15% लोग खिचड़ी सरकार कहते हैं । जब कि खिचड़ी सबसे अधिक सुपाच्य होती है । गठबंधन की न्यायप्रिय सरकार थी कि मंडल आयोग की एक अनुसंशा लागु हो सकी । जिसमें महत्वपूर्ण योगदान वीपी सिंह का था । जब मंडल आया तो वचस्ववादी कमण्डल लेकर आगये । जिसमें हिंसा और साम्प्रदायीका को हथियार बनाया गया । और मंडल का काउंटर किया । आज हमारे लोग भी हिंदुत्व की फिल्ड पर राजनीतिक करने की कोशिश कर रहे हैं । उसका परिणाम आप सब देख रहे हैं । उत्तर भारत में कांशीराम ने वैचारिक विभूतियों को पहचाना था । उन्होंने अम्बेडक के साथ अनेक नायकों खड़ा किया । दक्षित भारत जो पेरियार की आमूलचूल वैचारिकी पर चलता है । इस कारण वहाँ से हिंदुत्व गायब है । शिक्षा, स्वास्थ्य, भूमि आदि पर पेरियार का नवजागरण आधार स्तंभ बना है । इसलिए दक्षिण के राज्य आज शिक्षा, स्वास्थय आदि में उत्तर ही नहीं संपूर्ण भारत में बहुत बेहतर हैं । पेरियार और पेरियार ललई सिंह के बौद्धिक प्रबोधन को आपको सचेत हो कर समझना होगा । आज जिस प्रकार हिंदुत्वादी सरकार विरोधियों को जेल में ठूस रही है । उससे हम सहज ही समझ सकते हैं कि यदि पेरियार ललई सिंह आज होते तो वो तिहाड़ जेल में होते यद्यपि कि वो पूर्व की वर्चस्ववादी सरकारों में कई बार जेल जा गए थे । वो ब्रिटिश राज में भी जेल गए थे । हमारा यह हश्र राजनैतिक चेतना न होने के कारण है । इसलिए वैचारिकी का निर्माण कीजिये और इसीलिए पेरियार ललई सिंह की वैचारिकी उत्तर भारत में आज सबसे अधिक प्रासंगिक है । साथ ही, हमें वर्चस्ववादियों के दिमाग में भरी कुंठा को भी निकालना चाहिए है । जो सामाजिक विभाजन करने वाली मानसिकता है उसका उन्मूलन चाहते थे पेरियार ललई सिंह । समता और बंधुता ही इसे नस्ट कर सकती है । अत: भारत को मूर्खता और अज्ञानता के आनंद लोक से निकलना होगा । जो पेरियार ललई सिंह आदि विचारकों की वैचारिकी से ही संभव है । इसलिए हिंदुत्ववादियों को परास्त करने के लिए पेरियार, अम्बेडक के साथ पेरियार ललई सिंह का विचार आधार स्तंभ हो सकता है । पेरियार ई वी रामास्वामी की वैचारिकी को उत्तर भारत में लाने की कोशिश बहुत पहले पेरियार ललई सिंह ने किया था । जिसकी संचित अभिव्यक्ति इस ग्रंथावली में है । अत: यह पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली किताब नहीं ज्ञान पुंज है । इसलिए हिंदी हार्टलैंड को पेरियार ललई सिंह जैसे एक नहीं हजार विचारक चाहिए । जो वैचारिकी और मिशन से भरे हुए हों । कारण कि जो हिंदुत्व से लड़ेगा उसे घेरा जायेगा एकलव्य की तरह मारने की कोशिश की जायेगी । इसलिए पेरियार ललई सिंह जैसे प्रतिबद्ध और समर्पित लोगों की जरूरत है । तभी आप हिंदुत्व को परास्त कर सकते हैं ।
जय प्रकाशन कर्दम ने कहा, मैं युवा अवस्था में पेरियार ललई सिंह और उनके साहित्य से परिचित हुआ । वे बौद्ध भिक्खुओं सा कुर्ता-पजामा पहनते थे । जिसमें कई थैली होती थी । पैर में जूता और चप्पल पहनते थे । जब मैं पहली बार उनसे मिला तो अभिभूत हो गया कि उत्तर भारत का इतना बड़ा महानायक कितनी सौम्यता से मिलता है । मृदु भाषा में बात करता है लेकिन जब जनता को प्रबोधित करने के लिए मंच पर होते हैं तो बहुत कड़क और तेज आवाज में बोलते हैं । वह इसलिए कि सोई हुई जनता में ऊर्जा आजाये । आत्मविश्वास आजाये । वे हिंदुत्व पर हर समय करारा हमला करते थे । उनके झोले में आंदोलन के पर्चे, छोटी छोटी पुस्तकें जो सामाजिक, राजनीतिक और धम्म की चेतना की होती थीं । किसी से मिलते थे तो वही सब देते थे । ऐसे जननायक के साहित्य के विमोचन में होना मेरे लिए गौरव की बात है । गगन को मैं लम्बे समय से जानता हूँ । वे हमसे लगातार मिलते रहते हैं । उनमें विपुल बौद्धिक मेधा है । वे एक वास्तविक अनुसंधानकर्ता हैं । उनमें सिखने की ललक है । और खूब विनम्रता भी है । उसी का प्रतिफल है कि वो पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली का संपादन कर सके । इसके संपादन में उन्हें 7 साल लगा । और 44 दिन में राजकमल प्रकाशन समूह, नई दिल्ली से छप कर आई । ऐसा संकलन-संपादन अन्य महापुरुषों का भी होना चाहिए । पेरियार ललई सिंह वर्ण, जाति और छुआछूत के आमूलचूल उन्मूलन के लिए लड़े, जिसमें वे अपने नाम से जाति हटा दिए और संपूर्ण जीवन नाम सिर्फ पेरियार ललई सिंह लिखते रहे । वास्तव में, ये आधुनिक राष्ट्र-निर्माता थे । वे समतामूलक सांस्कृतिक राष्ट्र-निर्माण में लगे रहे । आज हमें वैसी ही वैचारिकी का, सांस्कृतिक राष्ट्र-निर्माण चाहिए । हम अपनी अपनी जातियों के मोह को नहीं छोड़ पा रहे हैं । जबकि यही हमारे बिखराव और पतन का मुख्य कारण है । हमें वर्ण-जाति से उपर उठकर अपना सांस्कृतिक निर्माण करना चाहिए । पेरियार ललई सिंह बौद्धमय भारत बनाना चाहते थे । मानवीय सामाज बनाना चाहते थे । हम संवैधानिक रूप से एक राष्ट्र हैं किंतु वास्तविकता यह है कि हम अलग अलग जातियों के समूह हैं । समाज के लिए समानता होना बहुत जरूरी है । जब तक हम समाज नहीं बन जाते तब तक राष्ट्र नहीं बन सकते । वर्तमान समाज, राष्ट्र कुछ जातियों की मुट्ठी में है । यहाँ जय भीम कहने वालों को मारा-पीटा जाता है । पेरियार ललई सिंह वैज्ञानिक सोच का समाज बनाना चाहते थे । उनकी वैज्ञानिकता में बुद्धिजम था । तभी पेरियार ललई सिंह का सपना पूरा होगा । फुले, अम्बेडकर और पेरियार के सपनों का समाज बन सकेगा । जिसमें ईश्वर, अवतार स्वर्ग-नर्क देवी-देवता आदि अवैज्ञानिक चेतना को ध्वस्त करना होगा । पेरियार ललई सिंह ऐसा ही करना चाहते थे । इसी चेतना के कारण वे नास्तिक थे । नास्तिक होने के लिए बुद्धि, तर्क, तथ्य और वैज्ञानिकता चाहिए । इसका अपने अनुभव से इस्तेमाल करना होता है । इसी सोच के कारण उन्हें उत्तर भारत का पेरियार कहा जाता है । हमें तार्किक, वैज्ञानिक सोच का समाज बनाना है । उसी से न्यायप्रिय समाज बनेगा । राष्ट्र पूर्ण होगा । कहा जाता है – साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मसाल है । यह पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली मसाल का काम कर सकती है ।
रामाशंकर सिंह ने कहा पेरियार ललई सिंह नए मनुष्य का सृजन करना चाह रहे थे । जो न्याय, समता और बंधुता से भरा हुआ हो । जो सवाल करने वाला हो, आज्ञापालन करने वाला या गुलामवृत्ति का न हो । इस दुनिया में किसी भी समाज में मनुष्य को पाँच प्रकार का न्याय चाहिए – सामाजिक न्याय, राजनीति न्याय, विधिक और आर्थिक न्याय, लैंगिक न्याय, धार्मिक और सांस्कृतिक न्याय । इसमें कोई भी कम होगा तो वह पूर्ण न्यायप्रिय समाज नहीं हो सकता है । इसकी पूर्ण अभिव्यक्ति पेरियार ललई सिंह के चिंतन में है । भारतीय समाज में असमानता को सहज स्वीकार करने के लिए तैयार किया जाता है । यह सोच वर्ण और आश्रम से प्रवाहित होती है । इसका प्रतिरोध बुद्ध, कबीर, रैदास, फुले, पेरियार, अंबेडकर और पेरियार ललई सिंह आदि ने किया । इसी कारण पेरियार ललई सिंह के चिंतन और सोच का अध्ययन करने के लिए यह ग्रंथावली पढ़ना जरूरी है । पेरियार ललई सिंह अखिल भारतीय स्तर के लेखक और बुद्धिजीवी थे । उनकी किताबों की सम्मतियाँ पंजाब से एल आर बाली तो वहीं लखनऊ से चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु और कानपुर से राम स्वरूपवर्मा जैसे विद्वान लिख रहे थे । इसमें कोई दिल्ली तो कोई हापुड़ तो कोई अलीगढ़ का है । इस ग्रंथावली की सबसे बड़ी बात है कि उस समय के बुद्धिजीवी और आंदोलनकारी कैसे एक दूसरे से जुड़े हुए थे । क्या बात कर रहे थे । एक दूसरे का कितना समर्थन कर रहे थे । यह सब इस पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली में दिखेगा । यह ग्रंथावली पूरी दुनिया के समता, बंधुता और मनुष्यता को आगे लेजाने वाले लोगों को एक साथ जोड़ती है । एक साथ लाती है । इसमें अब्राहम लिंकन भी हैं पेरियार भी हैं और अम्बेडकर भी हैं । इसमें पेरियार ललई सिंह भारत के साथ पूरी दुनिया के 26 हजार लोगों से जुड़े हुए दिखते हैं। जो जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन आदि के साथ भारत में कश्मीर से तमिलनाडु तक और गुजरात से बंगाल-असम तक के लोगों के पाते हैं । जिसके कुछ पाते ग्रंथावली खंड 5 में दिये गए हैं । कोई उस पते पर जाकर पूछ सकता है कि आप पेरियार ललई सिंह के साहित्य को क्यों पढ़ना चाहते हैं तो आपको सुखद हैरत होगी कि वहाँ पर कोई न्यायपूर्ण मनुष्य मौजूद है । यह ग्रंथावली वास्तव में न्यायप्रिय मनुष्यों के समागम को भी साफ दर्शाती है । पेरियार ललई सिंह के पास जो 26 हजार पाते हैं वे वास्तव में छब्बीस हजार प्रकाश वृत्त हैं । संपूर्ण भारत में ये न्याय के दिये हैं । उस दिये से बंधुता का प्रकाश निकलता है । जिसमें अध्यापक, वकील, जज पत्रकार सभी हैं जो पेरियार ललई सिंह के साहित्य को पढ़ रहे थे । उससे प्रेरणा ले रहे थे । उस दौर में सच में अखिल भारतीय स्तर पर पेरियार ललई सिंह के विचारों का दिया जल रहा था । जिसे वे एक बेहतर दुनिया बनाना चाहते थे ।
नीरज भाई पटेल ने कहा मेरे पुरखे थे पेरियार ललई सिंह । मैं उनकी वैचारिकी को जीता हूँ । उसके लिए लड़ता हूँ । पेरियार ललई सिंह का सच्चा वारिश होना जातिवाद, अंधविश्वास और कर्मकांड से लड़ना है ।
धर्मवीर यादव गगन ने कहा कि ग्रंथावली के संकलन-संपादन में मुझे सात साल लगे और चौवालिश दिन में प्रकाशित हो सकी । पेरियार ललई सिंह का जीवन परिचय बताते हुए बताया कि उनके पिता उनकी चेतना निर्माण में प्रथम व्यक्ति थे । उनकी माँ की मृत्यु पर लघु-जमींदार चौधरी गज्जु सिंह ने अपने खेत में उनकी लास को जलाया और जलती लकड़ियों पर भुट्टा सेंक कर खाया किसी पंडे-पुरोहित को नहीं बुलाया । यह उनका संपूर्ण जनता को संदेश देना था कि ईश्वर, देवी-देवता स्वर्ग-नर्क सब झूठ है । पुरोहित पांडे पूजारी की बातें झूठी हैं । सब अंधविश्वास है । वे अपनी मौलिक सोच में वर्णवाद, ब्राह्मणवाद, मनुवाद के प्रखर विरोधी विभूति थे । जिसका गहरा प्रभाव पेरियार ललई सिंह बचपन पर पड़ा था ।
जून 1933 ई. में वे ग्वालियर नेशनल आर्मी में सिपाही के रूप में भर्ती हुए । 1945 ई. में हाई-कमांडर हुए । 1945 से देश की स्वतंत्रता के लिए आंदोलन किए जेल गए । देश की स्वतंत्रता के लिए 41 दिनों की लम्बी भूख हड़ताल किए । 1948 में जेल से छूटे । 1951 ई. में बाबा साहब डॉ अम्बेडकर से ग्वालियर में मिले । जहाँ डॉ. अम्बेडकर को सिंधिया परिवार ने भारत सरकार से चल रहे मुकदमे में कानूनी सलाह देने के लिए बुलाया था । एक सैनिक की राष्ट्र सेवा के बाद पेरियार ललई सिंह संपूर्ण भारत का भ्रमण करते हैं । और समतामूलक राष्ट्र-निर्माण के लिए लग जाते हैं । 14 अक्टूबर, 1956 के बाबा साहब डॉ अम्बेडकर द्वारा बौद्ध धर्म ग्रहण नागपुर में वे जाना चाह रहे थे । साथियों संग निकले भी किंतु क्षय रोग के कारण खून की उल्टी होने लगी । जिस कारण दीक्षा ग्रहण में नहीं जा सके । 21 जुलाई, 1967 ई. को उन्हीं महाथेरा ऊँ चंद्रमणि से कुशीनगर में बौद्ध धर्म ग्रहण किया और घोषणा किया कि अब मैं अपने नाम से चौधरी, यादव सदा के लिए त्यागता हूँ । एक बौद्धिस्ट की जाति नहीं होती है । यदि कोई बौद्धिस्ट जाति को मानता है तो वो बौद्ध नहीं बल्कि वर्णवादी हिंदू है । उसके बाद से अपना नाम ‘ललई सिंह’ लिखने लगे ।
12 अक्टूबर, 1968 ई. को गुरु पेरियार ईवी रामास्वामी को चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, पेरियार ललई सिंह, शिवदयाल सिंह चौरसिया और छेदीलाल साथी आदि ने ‘अल्पसंख्यक एवं पिछड़ा वर्ग सम्मेलन, लखनऊ’ में बोलने के लिए बुलाया था । जिसमें पेरियार ने हिंदुत्व पर करारा हमला किया था । 14 अक्टूबर, 1968 ई. को नानाराव पार्क (अब अम्बेडकर पार्क) कानपुर में पेरियार ललई सिंह ने बौद्ध धर्म दीक्षा ग्रहण का विशाल सम्मेलन किया और 10 हजार से अधिक लोगों को बौद्ध धर्म ग्रहण करवाया । इसमें ललई सिंह ने गुरु पेरियार की ही तरह हिंदुत्व पर करारा हमला किया । इस पर भिक्षु निर्गुणनंद ने कहा की ‘उत्तर भारत के पेरियार’ तो ‘ललई सिंह’ हैं तब से इन्हें इनके शुभ चिंतक ‘पेरियार ललई सिंह’ कहने लगे और ये अपना नाम ‘पेरियार ललई सिंह’ लिखने लगे । इसी विचारक की किताबें, भाषण, साक्षात्कार, पत्र, पर्चे, पंपलेट आदि इस ग्रंथावली में संगृहीत है । यह किताब नहीं विचार है ।
पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली
5 खंड, 2000 पृष्ठ, मूल्य -2000₹
राजकमल प्रकाशन समूह, नई दिल्ली ।