- सूरदास का ‘भ्रमरगीत’ और उसके पद (पद सं. 21-70)
अनेक आलोचकों ने भ्रमरगीत प्रसंग को ‘सूरसागर’ का सर्वोत्कृष्ट अंश बताया है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सूरसागर से ‘भ्रमरगीत’ के प्रसंगों को ढूंढ़कर निकाला और उसे संपादित कर ‘भ्रमरगीत सार’ नाम से पाठक समुदाय के सामने रखा. इस संपादित पुस्तक के आरंभ में ही शुक्ल जी ने लिखा है- “भ्रमरगीत सूरसागर के भीतर का एक सार रत्न है.”
श्रीमद्भागवत के समान ही सूरदास के ;भ्रमरगीत’ का पहला पद श्रीकृष्ण के वचन उद्धव के प्रति है. जैसे-
‘पहिले करि परनाम नन्द सो समाचार सब दीजो.
और वहाँ वृषभानु गोप सों जाय सकल सुधि लीजो.
श्रीदामा आदिक सब ग्वालन मेरे हुतो भेटियो.
सुख संदेस सुनाय हमारी गोपिन को दुःख भेटियो.
कृष्ण उद्धव को ब्रज भेजने का प्रयोजन करते हैं. उद्धव को अपने ज्ञान पर बड़ा गर्व था और भक्तिमार्ग की निंदा करते थे. अतः कृष्ण उद्धव के इस ज्ञान गर्व को दूर करना चाहते थे. इसलिए उन्होंने उद्धव को गोपियों के पास भेजा. उद्धव जैसे ही ब्रज में दिखाई दिए कि सारे ब्रजवासियों ने उन्हें आकर घेर लिया. जब नन्द-यशोदा का संदेश कह चुकने के बाद उद्धव गोपियों से संवाद प्रारंभ करना चाहा कि इतने में एक भौंरा उड़ता हुआ गोपियों के पास आकर गुनगुनाने लगा-
यहि अंतर मधुकर इक आयो.
निज सुभाव अनुसार निकट होइ सुन्दर शब्द सुनायो.
पूछन लागी ताहि गोपिका कुब्जा तोहिं पठायो.
कैंधों सूर स्याम सुन्दर को हो हमें संदेसो लायो.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार भौंरों के आकस्मिक आगमन से गोपियों को एक पात्र मिल गया- “फिर तो मानों गोपियाँ उसी भ्रमर को संबोधित करके जो जी में आता है, खरी-खोटी, उल्टी-सीधी, सब सुनाती चलती है. इसी से इस प्रसंग का नाम ‘भ्रमरगीत’ पड़ा है. कभी गोपियाँ उद्धव का नाम लेकर कहती हैं, कभी उस भ्रमर को संबोधित करके कहती हैं- विशेषतः जब कठोर परुष और कठोर वचन मुँह से निकालना होता है. श्रृंगार रस का ऐसा ‘उपालंभ काव्य’ दूसरा नहीं है.”
भक्ति आंदोलन के भीतर सगुण-निर्गुण का द्वंद्व बहुत तीखा हो चला था. 16वीं सदी में कृष्णभक्ति की नयी धारा का प्रसार केवल ब्रज प्रदेश में ही नहीं, भारत के अन्य अंचलों में भी लोकप्रिय होने लगा था. अतः सूर का काव्य कृष्ण के लीलामय सगुण रूप में होने के कारण एक तरफ स्त्री-पुरुष की स्वच्छंद और उन्मुक्त प्रेमभावना का समर्थन करता है, वहीं उस जमाने के शास्त्रीय और दार्शनिक विवादों में भी हस्तक्षेप करता है. ‘भ्रमरगीत’ के उद्धव-गोपी संवाद में ज्ञान बनाम भक्ति, सगुण बनाम निर्गुण की बहस अपने प्रखर रूप में व्यक्त हुई है जिससे पता चलता है कि सूरदास नाथपंथियों, सिद्धों और संतों की दलीलों का खंडन कर रहे हैं. ‘उद्धव-गोपी संवाद वस्तुतः निर्गुनिया मत से सूर की मुठभेड़ का छाया-बिम्ब प्रतीत होता है.’
उद्धव स्वयं ज्ञानमार्गी हैं और ब्रह्म की निर्गुण निराकार सत्ता में विश्वास रखते हैं. कृष्ण उनके ज्ञान-गर्व को चूर करना चाहते थे. इसलिए गोपियों के पास उद्धव को भेजते हैं. पर गोपियाँ तो कृष्ण की सगुण लीला के रस और प्रेम में पगी हैं. कृष्ण के मथुरा चले जाने के बाद विरह व्याकुल हो रही है. उद्धव के निर्गुण साधना, योग साधना, नाथपंथी बज्रयानी साधना का उपदेश सुनकर गोपियाँ पूछती हैं-
निर्गुण कौन देश को वासी?
मधुकर! हँसी समुझाय, सौंह दै बूझति सांच, न हांसी.
को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारी को दासी?
कैसो बरन भेस है कैसी केहि रस में अभिलासी?
पावैगो पुनि कियो आपना जो रे! कहैगो गासी.
सुनत मौन ह्वै रह्यो ठग्यो सौं सुर सवै मति नासी.
सूरदास का सबसे बड़ा तर्क प्रेम है जिसकी कोई लौकिक सत्ता नहीं, जिससे कोई रिश्ता कायम नहीं हो सकता, जिससे रोज-रोज का जीवन-व्यवहार और लेन-देन नहीं, उसके प्रति लगाव कैसे हो सकता है? उसकी भक्ति कैसे हो सकती है? जिससे कभी मिलना संभव नहीं है उसके रूप, उसके व्यक्तित्व की धारणा ही नहीं हो पाती. इसके विपरीत जिससे संबंध बन जाता है और प्यार हो जाता है, उसके लिए अपने को उत्सर्ग करने की भावना सहज ही उत्पन्न हो जाती है. जैसे-
उधो प्रीति न मरन विचारै.
प्रीति पतंग जरै पावक परि, जरत अंग नहिं टारै.
प्रीति परेवा उड़त गगन चढि गिरत न आस सम्हारै.
प्रीति मधुप केतकी कुसुम बसि कंटक आपु प्रहारै.
‘भ्रमरगीत’ को ‘सूरसागर’ का सबसे मर्मस्पर्शी अंश माना जाता है. यह एक प्रकार का उपालंभ काव्य भी है. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सगुण-निर्गुण के इस विवाद में भ्रमरगीत के पदों की विवेचना करते हुए इस बात पर जोर देते हैं- “भक्ति शिरोमणि सूर ने इसमें सगुणोपासना का निरूपण बड़े ही मार्मिक ढ़ंग से- ह्रदय की अनुभूति के आधार पर, तर्क पद्धति पर नहीं- किया है. सगुण-निर्गुण का यह प्रसंग सूर अपनी ओर से ले आए हैं जिससे संवाद में बहुत रोचकता आ गई है. भागवत में यह प्रसंग नहीं है.”
आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र इस सगुण-निर्गुण विवाद में सूरदास और तुलसीदास को एक तरफ रखते हैं और दूसरी तरफ नाथपंथियों, सिद्धों और संतों को रखते हैं. सवर्ण हिन्दू समाज के पंडितों-पुरोहितों पर व्यंग्योक्तियों के बाण बरसाने वाले नाथों, सिद्धों और संतों के प्रसंग में आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जी ने लिखा है- “ज्ञान की कोरी वचनावली और योग की थोथी साधनावली का यदि साधारण लोगों में विशेष प्रचार हो तो अव्यवस्था फैलने लगती है. निर्गुण पंथ ईश्वर की सर्वव्यापकता, भेदभाव की शून्यता, सब मतों की एकता आदि लेकर बढ़ा जिस पर चलकर अनपढ़ जनता ज्ञान को अनपढ़ बातों और योग के टेढ़े-मेढ़े अभ्यासों को ही सबकुछ मान बैठी तथा दंभ, अहंकार आदि दुर्वृत्तियों से उलझने लगी. ज्ञान का ककहरा भी न जानने वाले उसके पारंगत पंडितों से मुंहजोरी करने लगे. अज्ञान से जिनकी आँखें बंद थीं वे ज्ञान चक्षुओं को आँख दिखाने लगे.”
आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र कहते हैं कि ज्ञानमार्गी धारा ‘लोक विरोधी धारा’ थी. वे यह भी मानते हैं कि यह तत्कालीन उद्वेगजनक प्रवृत्ति ही थी जिसका उच्छेद करने के लिए सूर ने ‘सागर’ की ये उल्लास तरंगे लहराई. वे लिखते हैं- “इसमें संदेह नहीं कि सूर ने सगुण-निर्गुण के विवाद में ज्ञान या योगमार्ग को संकीर्ण, कठिन तथा नीरस बताया तथा भक्तिमार्ग को विशाल राजपथ जैसा सरल और सरस माना. सगुण-निर्गुण विवाद की यह द्वंद्वात्मकता ही भ्रमरगीत प्रसंग का प्राण है.”
- भ्रमरगीत के पद (पद सं. 21-70)
पद सं. 17, राग नट
ऊधो को उपदेश सुनौ किन कान दै?
सुन्दर स्याम सुजान पठायो मान दै..ध्रुव..
कोउ आयो उत तायँ जितै नन्दसुवन सिधारे.
वहै बेनु-धुनी होय मनो आए नन्द प्यारे..
धाईं सब गलगाजि कै उधो देखे जाय.
लै आईं ब्रजनाथ पै हो, आनंद उर न समाय..
अरघ आरती तिलक दूब, दधि माथे दीन्हीं.
कंचन-कलस भराय आनि परिकरमा कीन्हीं..
गोप-भीर आँगन भई मिलि बैठे यादवजात.
जलझारी आगे धरी बूझती हरि-कुसलात..
कुसल छेम बसुदेव, कुसल देवी कुबजाऊ.
कुसल-छेम अक्रूर, कुसल नीके बलदाऊ..
पूछी कुसल गोपाल की रहीं सकल गहि पाय.
प्रेम-मगन ऊधो भए उन्हीं देखत ब्रज को भाय..
मन मन ऊधो कहै यह न बूझिय गोपालहिं.
ब्रज को हेतु बिसारि जोग सिखवत ब्रजबालहि..
पाती बाँचि न आवई रहै नयन जल पूरि.
देखि प्रेम गोपीन को, हो, ज्ञान-गरब गयो दूरी..
तब इत उत बहराय नीर नयनन में सोख्यो.
ठानी कथा प्रबोध बोलि सब गुरु समोख्यो..
जो ब्रत मुनिवर ध्यावहीं पर पावहिं नहिं पार.
सो ब्रत सीखो गोपिका, हो, छाँड़ि बिषय-बिस्तार..
सुनि ऊधो के बचन, रही नीचे करि तारे.
मनो सुधा सो सींचि आनि विषज्वाला जारे..
हम अबला कह जानहीं जोग जुगुति की रीति.
नन्दनंदन ब्रज छाँड़ि कै, हो, को लिखि पुजै भीति.?
अबिगत, अगह, अपार, आदि अवगत है सोई.
आदि निरंजन नाम ताहि रंजै सब कोई..
नैन नासिका-अग्र है, तहाँ ब्रह्म को बास.
अबिनासी बिनसै नहीं, हो, सहज ज्योति पर कास..
घर लागै औघूरि कहे मन कहा बंधावै?
अपनो घर परिहरे कहो को घरहि बतावै?
मूरख जादवजात हैं, हमहिं सिखावत जोग.
हमको भूली कहत हैं, हो, हम भूली किधौं लोग?
गोपिहु तें भयो अंध ताहि दुहुँ लोचन ऐसे!
ज्ञान नंन जौ अंध ताहि सूझै धौं कैसे?
बूझे निगम बोलाई कै, कहै वेद समुझाय.
आदि अंत जाके नहीं, हो, कौन पिता को माय?
चरन नहीं भुज नहीं, कहौ ऊखल किन बाँधों?
नैन नासिका मुख नहीं, चोरि दधि कौने खांधों?
कौन खिलायो गोद में, किन कहे तोंतरे बैन?
ऊधो ताको न्याब है, हो, जाहि न सुझै नैन.. 17
राग धनाश्री
हमसों कहत कौन की बातें?
सुनि ऊधो! हम समुझत नाहीं फिरि पूछति हैं तातें..
को नृप भयो कंस किन मारयो को बसुघो-सुत आहि?
यहाँ हमारे परम मनोहर जिजतु हैं मुख चाहि..
दिनप्रति जात सहज गोचारन गोप सखा लै संग.
बासरत रजनीमुख आवत करत नयन गति पंग..
को व्यापक पूरन अबिनासी, को बिधि-बेद-आपार?
सूर बृथा वकवाद करत हौ या ब्रज नंदकुमार.. 18
राग सारंग
तू अति! कासों कहत बनाय?
बिन समुझे हम फिरि बूझति हैं एक बार कहौ गाय..
किन बै गवन कीन्हों संकटनि चढि सुफलकसुत के संग.
किन बै रजक लुटाई बिबिध पट पहिरे अपने अंग?
किन हति चाप निदरि गज मारयो किन वे कल्ल मथि जाने?
उग्रसेन बसुदेव देवकी किन वे निगड़ हठि भाने?
तू काकी है करत प्रसंसा; कौने घोष पठायो?
किन मातुल बधि लयो जगत जस कौन मधुपुरी छायो?
माथे मोर मुकुट बनगुंजा, मुख मुरली-धुनि बाजै?
सूरदास जसोदानंदन गोकुल कह न बिराजै? 19
राग सारंग
हम तो नंदघोस की बासी.
नाम गोपाल, जाति कुल गोपहि, गोप-गोपाल उपासी..
गिरवरधारी गोधनचारी, वृन्दाबन-अभिलासी.
राजा नंद जसोदा रानी, जलधि नदी जमुना-सी..
प्रान हमारे परम मनोहर, कमलनयन सुखरासी.
सूरदास प्रभु कहौ कहाँ लौं अष्ट महासिधि दासी.. 20
राग केदार
गोकुल सबै गोपाल उदासी.
जोग-अंग साध तजे ऊधो ते सब बसत ईसपुर कासी..
यद्यपि हरि हम तजि अनाथ करि तदपि रहति चररनि रसरासो.
अपनी सीतलताहि न छाँडत यद्यपि है ससि राहु-गरासी..
का अपराध जोग लिखि पठवत प्रेम भजन तजि करत उदासी.
सूरदास ऐसी को बिरहिन माँ गति मुक्ति तजे गुनरासी.. 21
राग धनाश्री
जीवन मुँहचाही को नीको.
दरस परस दिन रात करति है कान्ह पियारे पी को..
नयनन मूँदि-मूँदि किन देखौ बंध्यौ ज्ञान पोथी को.
आछे सुंदर स्याम मनोहर और जगत सब फीको..
सुनौ जोग को कालै कीजै जहाँ ज्यान है जी को?
खाटी मही नहीं रुचि मानै सूर खाबैया घी को.. 22
राग काफी
आयो घोष बड़ो-व्यापारी.
लादि खेप गुन ज्ञान-जोग की ब्रज में आन उतारी..
फाटक दैकर हाटक माँगत भोरै निपट सुधारी.
धुर ही तें खोटो खायो है लये फिरत सिर भारी..
इनके कहे कौन डहकावै ऐसी कौन अजानी?
अपनो दूध छाँड़ि के पीवै खार कूप को पानी..
ऊधो जाहु सबार यहाँ तें बेगि गहरु जनि लावौ.
मुँहमांग्यो पैहो सूरज प्रभु साहुहि आनि दिखावौ.. 23
जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै.
यह ब्योपार तिहारो ऊधो! ऐसोई फिरि जैहै..
जापै लै आए हौ मधुकर ताके उर न समैहै.
दाख छाँड़ि कै कटुक निबौरी, को अपने मुख खैहै?
मूरी के पातन के केना, को मुक्ताहल दैहै.
सूरदास प्रभु गुनहि छाँड़ि कै को निर्गुन निबैहै? 24
राग नट
आए जोग सिखावन पाँड़े.
परमारथी पुराननि लादे ज्यों बनजारे टाँड़े..
हमरी गति पति कमलनयन की जोग सिखै ते राँड़े.
कहौ मधुप, कैसे समाएंगे एक म्यान में दो खाँड़े..
कहु षटपद, कैसे खैयतु है हाथिन के संग गाड़े.
काकी भूख गई बयारि भखि बिना दूध घृत माँड़े..
काहे जो झाला लै मिलवत, कौन चोर तुम डांड़े.
सूरदास तीनों नहिं उपजत धनिया धान कुम्हाँड़े.. 25
राग बिलावल
ए अलि! कहा जोग में नीको?
तजि रसरीति नंदनंदन की सिखबत निर्गुन फीको..
देखत सुनत नाहि कछु स्रवननि, ज्योति ज्योति करि ध्यावत.
सुन्दर स्याम दयालु कृपानिधि कैसे हौ बिसरावत?
सुनि रसाल मुरली-सुर की धुनि सोइ कौतुक रस भूलैं.
अपनी भुजा ग्रीव पर मेलै गोपिन के सुख फूलैं..
लोककानि कुल को भ्रम प्रभु मिली-मिली कै घर बन खेली.
अब तुम सूर खवावन आए जोग जहर की बेली.. 26
राग मलार
हमरे कौन जोग व्रत साधै?
मृगत्वच भस्म अधारि, जटा को को इतनौ अवराधै?
जाकी कहूँ थाह नहिं पाए अगम अपार अगाधै.
गिरिधर लाल छबीले मुख पर इते बाँध को बाँधै?
आसन पवन बिभूति मृगछाला ध्यानननि को अवराधै?
सूरदास मानिक परिहरि कै राख गाँठि को बाँधै? 27
राग धनाश्री
हम तो दुहूँ भाँती फल पायो.
को ब्रजनाथ मिलैं तो नीको, नातरु जग जस गायो..
कहँ बै गोकुल की गोपी सब बरनहीन लघुजाती.
कहँ बै कमला के स्वामी संग मिल बैठीं इक पाँती..
निगमध्यान मुनिज्ञान अगोचर, ते भए घोषनिवासी.
ता ऊपर अब साँच कहो धौं मुक्ति कौन की दासी?
जोग कथा फल लागो ऊधो, ना कहु बारंबार.
सूर स्याम तजि और भजै जो ताकी जननी छार.. 28
राग कान्हरो
पूरनता इन नयनन पूरी.
तुम जो कहत स्रवननि सुनि समुझत, ये याही दुःख मरति बिसूरी..
हरि अंतर्यामी सब, जानत बुद्धि विचारत बचन समूरी.
वै रस-रूप रतन सागर निधि क्यों मनि पाय खवावत धूरी..
रहु रे कुटिल चपल, मधु लंपट, कितव सँदेस कहत कटु कूरी.
कहँ मुनिध्यान कहँ ब्रजयुवती! कैसे जात कुलिस करि चूरी..
देखु प्रगट सरिता, सागर, रस, सीतल सुभग स्वाद रुचि रूरी.
सूर स्वातिजल बसै जिय चातक चित्त लागत सब झूरी.. 29
राग धनाश्री
कहतें हरि कबहूँ न उदास.
राति खवाय पिवाय अधरस क्यों बिसरत सो ब्रज को बास..
तुमसों प्रेम कथा को कहिबो मनहुं काटिबो घास.
बहिरो ताँ-स्वाद कहँ जानै, गूँगों-बात-मिठास..
सुनु री सखी, बहुरि फिरि ऐहें वे सुख बिबिध बिलास.
सूरदास ऊधो अब हमको भयो तेरहों मास.. 30
तेरो बुरो न कोऊ मानै.
रस की बात मधुप नीरस सुनु, रसिक होत सो जानै..
दादुर बसै निकट कमलन के जन्म न रस पहिचानै.
अलि अनुराग उड़न मन बाँध्यो कहे सुनत नहि कानै..
सरिता चलै मिलन सागर को कूल मूल द्रूम भानै.
कायर वकै, लोह तें भाजै, लरै जो सूर बखानै.. 31
धर ही के बाढ़े रावरे.
नाहिन मीत वियोगबस परे अनवउगे अति बावरेऍ
भुख मरि जाय चरै नहिं तिनुका सिंह को यहै स्वभाव रे!
स्रवन सुधा-मुरली के पोषे, जोग-जहर न खबाव रे!
ऊधो हमहि सीख का दैहो? हरि बिनु अनत न ठाँव रे!
सूरदास कहा लै कीजै थाही नदिया नाव रे! 32
राग मलार
स्याममुख देखे ही परतीति.
जो तुम कोटि जतन करि सिखवत जोग ध्यान की रीति..
नाहिंन कछू सयान ज्ञान में यह हम कैसे मानैं.
कहौ कहा कहिए या नभ को कैसे उर में आनैं..
यह मन एक, एक वह सूरति, भृंगकीट सम माने.
सूर सपथ दै बूझत ऊधो वह ब्रज लोग सयाने.. 33
राग धनाश्री
लरिकाई को प्रेम, कहौ अलि, कैसे करिकै छूटत?
कहा कहौ ब्रजनाथ-चरित जब अंतरगति यों लूटत..
चंचल चाल मनोहर चितवनि, वह मुसुकानि मंद धुन गावत.
नटवर भेस नंदनंदन को वह विनोद गृह वन तें आवत..
चरनकमल की सपथ करति हौं यह संदेस मोहि विष सम लागत.
सूरदास मोहि निमिष न बिसरत मोहत मूरति सोवत जागत.. 34
राग सोरठा
अटपटि बात तिहारी ऊधो सुनै सो ऐसी को है?
हम अहीरि अबला सठ, मधुकर! तिन्हैं जोग कैसे सौहै?
बूचिहि सुभी आँधरी काजर नकटी पहिरै बेसरि.
मुंडली पाटी पारन चाहै, कोढ़ी अंगहि केसरि..
बहिरी सों पति मतो करै सो उतर कौन पै पावै?
ऐसो न्याव है ताको ऊधो जो हमैं जोग सिखावै..
जो तुम हमको लाए कृपा करि सिर चढ़ाय हम लीन्हे.
सूरदास नरियर जो विष को करहि बंदना कीन्हे.. 35
राग बिहागरो
बरु वै कुब्जा भलो कियो.
सुनि सुनि समाचार ऊधो मो कछुक सिरात हियो..
जाको गुन, गति, नाम, रूप, हरि हारयो, फिरि न दियो.
तिन अपनो मन हरत न जान्यो हँसी हँसी लोग जियो..
सूर तनक चंदन चढ़ाय तन ब्रजपति वस्य कियो.
और सकल नागरि नारिन को दासी दाँव लियो.. 36
राग सारंग
हरि काहे के अंतर्यामी?
जौ हरि मिलत नहीं यहि औसर, अवधि बतावत लामी..
अपनी चोप जाम उठि बैठे और निरस बेकामी.
सो कहँ पीर पराई जानै जो हरि गरुड़ागामी..
आई उधरि प्रीति कलई सी जैसे खाटी आमी.
सूर इते पर अनख मरति हैं, ऊधो, पंवत मामी.. 37
विलग जनि मानहु, ऊधो प्यारे!
वह मथुरा काजर की कोठरि जे आवहिं ते कारे..
तुम कारे, सुफलकसुत कारे, कारे मधुप भंवारे.
तिनके संग अधिक छवि उपजत कमलनैन पनिआरे..
मानहु नील माट, तें काढ़े लै जमुना ज्यों पखारे.
ता गुन स्याम भई कालिंदी सूर स्याम-गुन न्यारे.. 38
अपने स्वारथ को सब कोऊ.
चुप करि रहौ मधुप रस-लंपट! तुम देखे अरु बोऊ..
औरौ कछू संदेस कहन को कहि पठयो किन सोऊ.
लीन्हे फिरत जोग जुवतिन को बड़े सयाने दोऊ..
तब कत मोहन रास खिलाई जौ पै ज्ञान हुतोऊ.
अब हमरे जिय बैठो यह पद ‘हानि होऊ सो होऊ’..
मिटि गयो मान परेखो ऊधो हिरदय हतो सो होऊ.
सूरदास प्रभु गोकुलनायक चित-चिंता अब खोऊ.. 39
तुम जो कहत सँदेसों आनि.
कहा करौं वा नंदनंनन सों होत नहीं हितहानि..
जोग-जुगुति किहि काज हमारे जदपि महा सुखखानि?
सने सनेह स्यामसुन्दर के हिलि मिलि कै मन मानि..
सोहत लोह परसि ज्यों सुबरन बारह बानि.
पुनि वह चोप कहाँ चुम्बक ज्यों लटपटाय लपटानि..
रूपरहित नीरासा निरगुन निगमहु परत न जानि.
सूरदास कौन बिधि तासों अब कीजै पहिचानि ..40
राग धनाश्री
हम तो कान्ह केलि की भूखी.
कैसे निरगुन सुनहि तिहारो बिरहिनी बिरह-बिदूखी?
कहिए कहा यहौ नहिं जानत काहि जोग है जोग.
पा लागों तुमहीं सो वा पर बसत बावरे लोग..
अंजन, अभरन, चीर, चारु बरु नेक आप तन कीजै.
दंड कमंडल, भस्म अधारी जो जुवतिन को दीजै..
सूरदास देखि दृढ़ता गोपिन की ऊधो यह ब्रत पायो.
कहै कृपानिधि हो कृपाल हो! प्रेमै पढ़न पठयो..41
अँखियाँ हरि-दरसन की भूखी.
कैसे रहैं रूपरसराची ये बतियाँ सुनि रूखी..
अवधि गनत इकटक मग जोबत तब एती नहिं झूखी.
अब इन जोग-सँदेसन ऊधो अति अकुलानी दूखी..
बारक वह मुख फेरि दिखाओ दुहि पय पिवत पतूखी.
सूर सिकत हटि नाव चलायो ये सरिता हैं सूखी.. 42
राग सारंग
जाय कहौ बूझी कुसलात.
जाके ज्ञान न होय सो मानै कही तिहारी बात..
कारो नाम, रूप पुनि कारो, कारे अंग सखा सब गात.
जो पै भले होत कहुँ कारे तौं कत बदलि सुता लै जात..
हमको जोग, भोग कुबजा को काके हिये समात.
सूरदास सेए सो पति कै पाले जिन्ह तेही पछितात.. 43
कहाँ लौं कीजै बहुत बड़ाई.
अतिहि अगाध अपार अगोचर मनसा तहाँ न जाई..
जल बिनु तरँग, भीति बिनु चित्रन, बिन चित ही चतुराई.
अब ब्रज में अनरीति कछू यह ऊधो आनि चलाई..
रूप न रेख, बदन, बपु जाके संग न सखा सहाई.
ता निर्गुन सों प्रीति निरंतर क्यों निब है, री माई?
मन चुभि रही माधुरी मूरति रोम-रोम अरुझाई.
हौं बलि गई सूर प्रभु ताके स्याम सदा सुखदाई.. 44
राग मलार
काहे को गोपीनाथ कहावत?
जो पै मधुकर कहत हमारे गोकुल काहे न आवत?
सपने की पहिचानि जानि कै हमहिं कलेक लगावत.
जो पै स्याम कूबरी रीझे सो किन नाम धरावत?
ज्यों गतराज काज के औसर औरे दसन दिखावत.
कहन सुनन को हम हैं ऊधो सूर अनत बिरमावत.. 45
अब कत सुरति होति है, राजन्?
दिन दस प्रीति करी स्वारथ-हित रहत आपने काजन..
सबै अयानि भई सुनि मुरलि ठगी कपट की छाजन.
अब मन भयो सिंधु के खंग ज्यों फिरि फिरि सरत जहाजन..
वह नातो टूटो ता दिन तें सुफलकसुत-संग भाजन.
गोपीनाथ कहाय सूर प्रभु कत मारत हौ लाजन.. 46
राग सोरठा
लिखि आई ब्रजनाथ की छाप.
बाँधे फिरत सीस पर ऊधो देखत आवै ताप..
नूतन रीति नन्दनंदन की घर-घर दीजत थाप.
हरि आगे कुब्जा अधिकारी, तातें है यह दाप..
आए कहन जोग अवराधो अबिगत-कथा की जाप.
सूर सँदेसों सुनि नहिं लागै कहौ कौन को पाप.. 47
राग सारंग
फिरि फिरि कहा सिखावत बात?
प्रातकाल उठि देखत ऊधो घर-घर माखन खात..
जाकी बात कहत हौ हमसों सो है हमसों दूरी.
ह्याँ है निकट जसोदानंदन प्रान-सजीवनभूरि..
बालक संग लये दधि चोरत खात खवावत डोलत.
सूर सीस धुनि चौंकत नावहिं अब काहे न मुख बोलत? 48
राग धनाश्री
अपने सगुन गोपालै, माई! यहि बिधि काहे देत?
ऊधो की ये निरगुन बातैं मीठी कैसे लेत.
धर्म, अधर्म कामना सुनावत सुख औ मुक्तिं समेत..
काकी भूख गई मनलाडू सो देखहु चित चेत.
सूर स्याम तजि को भुस फटकै मधुप तिहारे हेत? 49
राग सारंग
हमको हरि की कथा सुनाव.
अपनी ज्ञानकथा हो ऊधो! मथुरा हीलै गाव..
नागरि नारि भले बूझैंगी अपने बचन सुभाव.
पा लागों, इन बातनि, रे अलि! उनही जाय रिझाव..
सुनि, प्रियसखा स्यामसुन्दर के जो पै जिय सति भव..
हरिमुख अति आरत इन नयननि बारक बहुरि दिखावत.
जो कोऊ कोटि जतन करे, मधुकर, बिरहिनि और सुहाव?
सूरदास मीनन को जल बिनु नाहिंन और उपाव.. 50
राग कान्हरो
अलि हो! कैसे कहौं हरि के रूप-रसहि?
मेरे तन में भेद बहुत बिधि रसना न जानै नयन की दसहि..
जिन देखे तो आहिं बचन बिनु जिन्हैं बचन दरसन न तिसहि.
बिन बानी भरि उमगि प्रेमजल सुमिरि वा सगुन जसहि..
बार-बार पछितात यहै मन कहा करै जो बिधि न बसहि.
सूरदास अंगन की यह गति को समुझावै या छपद पंसुहि.. 51
राग सारंग
हमारे हरि हारिल की लकरी.
मन बच क्रम नंदनंदन सों उर यह दृढ करि पकरी..
जागत, सोबत, सपने सौंतुख कान्ह-कान्ह जक री.
सुनतहि जोग लागत ऐसो अलि! ज्यों करुई ककरी..
सोई व्याधि हमें लै आए देखी सुनी न करी.
यह तौ सूर तिन्हैं लै दीजै जिनके मन चकरी.. 52
फिरि फिरि कहा सिखावत मौन?
दुसह बचन अति यों लागत उन ज्यों जारे पर लौन..
सिंगी, भस्म, त्वचामृग, मुद्रा अरु अबरोधन पौन.
हम अबला अहीर, सठ मधुकर! घर बन जानै कौन..
यह मत लै तिनहीं उपदेसौ जिन्हैं आजु सब सोहत.
सूर आज लौं सुनी न देखी पोत सूतरी पोहत.. 53
राग जैतश्री
प्रेमरहित यह जोग कौन काज गायो?
दीन नसों निठुर बचन कहे कहा पायो?
नयनन निज कमलनयन सुन्दर मुख हेरो.
मूंदन ते नयन कहत कौन ज्ञान तेरो?
तामें कहु मधुकर! हम कहाँ लैन जाहीं.
जामें प्रिय प्राणनाथ नंदनंदन नाहीं.
जिनके तुम सखा साधु बातें कहु तिनकी.
जीवैं सुनि स्यामकथा दासी हम जिनकी..
निरगुन अबिनासी गुन आनि आनि भाखै.
सूरदास जिय कै जिया कहाँ राखौ? 54
राम केदारो
जनि चलो, अलि, बात पराई.
ना कोऊ कहै सुनै या ब्रज में नइ कीरति सब जाति हिंराई..
बूझैं समाचार मुख ऊधो कुल की सब आरति बिसराई.
भले संग बसि भई भली मति, भले मेल पहिचान कराई..
सुंदर कथा कटुक सी लागति उपजत उर उपदेश खराई.
उलटी नाव सूर के प्रभु को बहे जात माँगत उतराई.. 55
राग मलार
याकी सीख सुनै ब्रज को, रे?
जाकी रहनि कहनि अनमिल, अलि, कहत समुझि अति थोरे..
आपुन पद-मकरंद सुधारस, ह्रदय रहत नित बोरे.
हमसों कहत बिरस समझौ, है गगन कूप खनि खोरे..
घान को गाँव पयार ते जानौ ज्ञान विषयरस भोरे.
सूर सो बहुत कहे न रहै रस गूलर को फल फोरे.. 56
निरखत अंक स्यामसुन्दर के बारबार लावति छाती.
लोचन-जल कागद-मसि मिलि कै कह्वै गई स्याम स्याम की पाती..
गोकुल बसत संग गिरिधर के कबहुँ बयारि लगी नहिं ताती.
तब की कथा कहा कहौं, ऊधो, जब हम बेनुनाद सुनि जाती..
हरि के लाड़ गनति नहिं काहू निसिदिन सुदिन रासरसमाती.
प्राननाथ तुम कब धौं मिलोगे सूरदास प्रभु बालसँघाती.. 57
राग मारू
मोहिं अलि दूहुं भाँति फल होत.
तब रस-अधर लेति मुरली जब भई कूबरी सौत..
तुम जो जोगमत सिखवन आए भस्म चढ़ावन अंग.
इत बिरहिन मैं कहुं कोउ देखी सुमन गुहाये मंग..
कानन मुद्रा पहिरि मेखली धरे जटा आधारी.
यहाँ तरल तरिवन कहँ देखे अरु तनसुख की सारी..
परम बियोगिन रटति रैन दिन धरि मनमोहन ध्यान.
तुम तों चलो बेगि मधुबन को जहाँ-जहाँ जोग को ज्ञान..
निसिदिन जिजतु है या ब्रज में देखि मनोहर रूप.
सूर जोग लै घर-घर डोलौ लेहु-लेहु धरि सूप..58
राग सारंग
बिलग जनि मानौ हमरी बात.
डरपित बचन कठोर कहति, मति बिनु पति यों उठि जात..
जो कोउ कहत जरे अपने कछु फिरि पाछे पछितात.
जो प्रसाद पावत तुम ऊधो कृस्न नाम लै खात..
मनु जु तिहारो हरिचरनन तर अचल रहत दिन-रात.
सूर स्याम तें जोग अधिक केहि-कहि आवत यह बात.. 59
अपनी सी कठिन करत मन निसिदिन.
कहि-कहि कथा, मधुप समुझावति तदपि न रहत नंदनंदन बिन..
बरजत श्रवन सँदेस, नयन जल, मुख बतियाँ कछु और चलावत.
बहुत भांति चित धरत निठुरता सब तजि और यहै जिय आवत..
कोटि स्वर्ग सम सुख अनुमानत हरि-समीप समता नहिं पावत.
थकित सिंधु-नौका के खग ज्यों फिरि फिरि फेर वहै गुन गावत..
जे बासना न बिदरत अंतर तेइ तेइ अधिक अनूअर दाहत.
सूरदास परिहरि न सकत तन बारक बहुरि मिल्यौ है चाहत.. 60
राग धनाश्री
बहु रे, मधुकर! मधुमतवारे!
कहा करौं निर्गुन लै कै हौं जीवहु कान्ह हमारे..
लोटत नीच परागपंग में पचत, न आपु संहारे.
बारंबार सरक मदिरा की अपरस कहा उघारे.
तुम जानत हमहूँ वैसी हैं जैसे कुसुम तिहारे..
घरी पहर सबको बिलमायत जेते आवत कारे.
सुन्दरस्याम को सर्बबस अर्प्यो अब कापै हम लेहिं उधारे.. 61
राग बिलावल
काहे को रोकत मारग सूधो?
सुनहु मधुप! निर्गुन-कंटक तें राजपंथ क्यों रूधो?
कै तुम सिखै पठाए कुब्जा ‘कै’ कही स्यामधन जू धौं?
बेद पुरान सुमृति सब ढूंढ़ो जुवतिन जोग कहूँ घौं?
ताको कहाँ परेखो कीजै जानत छाछ न दूधौ.
सूर मूर अक्रूर गए लै ब्याज निबेरत ऊधौ.. 62
राग मलार
बातन सब कोऊ समुझावै.
जेद्वि बिधि मिलन मिलैं वै माधव सो बिधि कोउ न बतावै..
जद्यपि जतन अनेक रचीं पचि और अनत बिरमावै.
तद्यपि हठी हमारे नयना और न देखे भावै..
बासर-निसा प्रानबल्लभ तजि रसना और न गावै.
सूरदास प्रभु प्रेमहिं, लगि करि कहिए जो कहि आवै.. 63
राग सारंग
निर्गुन कौन देस को बासी?
मधुकर! हँसि समुझाय, सौंह दै बूझति साँच, न हाँसी..
को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि, को दासी?
कैसो बरन, भेस है कैसो केहि रस कै अभिलासी..
पावैगो पुनि कियो आपनो जो रे! कहैगो गाँसी.
सुनत मौन ह्वै रह्यो ठग्यो सो सूर सबै मति नासी.. 64
राग केदार
नाहिंन रह्यो मन में ठौर.
नंदनंदन अछत कैसे आनिए उर और?
चलत, चितवत, दिबस, जागत, सपन सोवत राति.
ह्रदय तें वह स्याम मूरति छन न इत उत जाति..
कहत कथा अनेक ऊधो लोक-लाभ दिखाय.
कहा करौ तन प्रेम-पूरन घट न सिंधु समाय..
स्याम गात सरोज-आनन ललित अति मृदु हास.
सूर ऐसे रूप कारन मरत लोचन प्यास.. 65
राग मलार
ब्रजजन सकल स्याम-ब्रतधारी.
बिन गोपाल और नहिं जानत आन कहैं व्यभिचारी..
जोग मोट सिर बोझ आनि कैं, कत तुम घोष उतारी?
इतनी दूरि जाहु चलि कासी जहाँ बिकति है प्यारी..
यह संदेस नहिं सुनै तिहारो, है मंडली अनन्य हमारी.
जो रसरीति करी हरि हमसौं सो कत जात बिसारी?
महामुक्ति कोऊ नहिं बूझै जदपि पदारथ चारी.
सूरदास स्वामी मनमोहन मूरति की बलिहारी.. 66
राग धनाश्री
कहति कहा ऊधो सों बौरी.
जाको सुनत रहे हरि के ढिग स्यामसखा यह सो री!
हमको जोग सिखावन आयो, यह तेरे मन आवत?
कहा कहत री! मैं पत्यात री नहीं सुनी कहनावत?
करनी भली भलेई जानै कपट कुटिल की खानि.
हरि को सखा नहीं री माई! यह मन निसचय जानि..
कहाँ रस-रस-कहाँ जोग-जप? इतना अंतर भाखत.
सूर सबै तुम कत भइं बौरी याकी पति जो राखत..67
राग रामकली
ऐसेई जन दूत कहावत!
मोको एक अचम्भी आवत यामें ये कह पावत?
बचन कठोर कहत, कहि दाहत, अपनी महत्त गंगावत.
ऐसी परकृति परति छांह की जुबतिन ज्ञान बुझावत..
आपुन निलज रहत नखसिख लौं एते पर पुनि गावत.
सूर करत परसंसा अपनी, हारेहु जीति कहावत.. 68
राग रामकली
प्रकृति जोई जाके अंग परी.
स्वान-पूंछ कोटिक जा लागै सूधि न काहु री..
जैसे काग भच्छ नहिं छाडै जनमत जौन धरी.
धोए रंग जात कहु कैसे ज्यों कारी कमरी?
ज्यों अहि डसत उदर नहिं पूरत ऐसी धरनी धरी.
सूर होउ सो होउ सोच नहिं तैसे हैं एउ री.. 69
राग रामकली
तौ हम मानैं आत तुम्हारी.
अपनो ब्रह्म दिखावहु ऊधो मुकुट-पिताम्बरधारी..
भजि हैं तब सब गोपी सहि रहि हैं बरु गारी.
भूत समान बतावत हमको जारहु स्याम बिसारो..
जे मुख सदा सुधा अंचवत हैं ते बिष क्यों अधिकारी.
सूरदास प्रभु एक अंग पर रीझि रही ब्रजनारी.. 70